लिंचिंग को लेकर सरकार के द्वारा उठाये जा रहे क़दम, सरकार की मंशा पर ही बड़े सवाल खड़े कर रहे हैं. क्या इन बदलावों से सरकार सच में लिंचिंग रोकना चाहती है या कुछ और?
लेखक- आसिफ इक़बाल , दिनांक-9 मई, 2020
(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)
लिंचिंग जैसी घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रहीं हैं. आये दिन कहीं न कहीं भीड़ किसी को भी पकड़ कर हत्या कर दे रही है. 16 अप्रैल, 2020 को भीड़ ने महाराष्ट्र के पालघर में 2 साधु समेत उनके ड्राइवर की पीट-पीट कर हत्या कर दी. शुरुआती ख़बरों के अनुसार इलाके में बच्चा चोरी की अफ़वाह गर्म थी. नासिक की तरफ से आ रहे है कार सवार लोगों को रोक कर हमला कर दिया. हालांकि मौके पर 20 पुलिस कर्मी भी पहुँच गयी थी. लेकिन लगभग 200 लोगों की भीड़ पुलिस पर भी हमला कर दिया. 20 पुलिस कर्मियों की टीम में 3 पुलिस कर्मी भी घायल हो गए. इस घटना के संबंध में अब तक 100 से अधिक लोगों को हिरासत में लिया जा चुका है.
लिंचिंग की सबसे अधिक घटनाएँ 2017 में हुई हैं. सरकार पर जब दबाव बनाया जाने लगा, तो सरकार ने इसे फेक न्यूज़ और इंटरमीडियरी, जैसे व्हाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर इत्यादि पर हो रहे दुष्प्रचार से जोड़ कर समझने का प्रयास कर रही है. सरकार ने 2018 में इंटरमीडियरी को लेकर बदलाव भी प्रस्तावित किये. बदलाव में कहा गया इंटरमीडियरी को किसी भी सन्देश या सुचना के संरचनाकर तक पहुँचने और सक्रिय रूप से कंटेंट मॉडरेशन करने की बात कही गयी है.
इससे पहले देश के अन्य हिस्सों में भी बच्चा चोरी के शक के कारण भीड़ के द्वारा हत्याएँ होती रही हैं. 11 जून, 2018 को असम में भी निलोतपल दास और अभिजीत नाथ की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी. बच्चा चोरी के लगभग सभी मामलों में एक अफवाह व्हाट्सप्प और अन्य सोशल मीडिया के माध्यम से उड़ने लगती है. भीड़ किसी भी सड़क चलते व्यक्ति को चोर समझ कर पीट-पीट का हत्या कर देती है.
पालघर, आसम और इसके अलावा अन्य सभी लिंचिंग, जो बच्चा चोरी के नाम पर हुई उसमे अफ़वाह की भूमिका साफ़ नज़र आती है. अफ़वाह सबसे अधिक सोशल मीडिया के माध्यम से फैलती या फैलाई जाती हैं. हालाँकि अफ़वाह और लिंचिंग का सम्बन्ध कोई नया नहीं. अफवाहें सोशल मीडिया के आने से पहले भी फैलती थी. और उन अफ़वाहों के कारण हिंसाएं भी हुई हैं. 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिखों के साथ हुई हिंसा में भी अफ़वाह की भूमिका पर शोध किया जा चुका है. लेकिन इसका कतई मतलब नहीं कि सोशल मीडिया पर अफ़वाहों को फैलने देना चाहिए. हालाँकि, सोशल मीडिया की भूमिका हर लिंचिंग में साफ़ नहीं होती है. खास कर गाय माँस और गाय के तस्करी के सम्बन्ध में.
झारखंड के सरायकेला-खरसावाँ जिले के धकतीडीह गाँव में 24 वर्षीया तबरेज़ अंसारी मोटर साइकिल चोरी के शक में पीट-पीट कर घायल कर दिया. 4 दिनों बाद तबरेज़ ने दम तोड़ दिया. तबरेज़ को पहले खंभे में बाँध कर 12 घंटो तक पीटती रही. पुलिस ने तबरेज़ को पहले अपने हिरासत में रखा, फिर कोर्ट में पेशी करवाई. पुलिस के अनुसार 4 दिनों बाद तबरेज़ की हालत बिगड़ने लगी. जिसके बाद उसे अस्पताल ले जाया गया जहाँ उसने अपनी अंतिम साँस ली. एफ़आईआर के अनुसार भीड़ तबरेज़ से “जय हुनमान” और “जय श्रीराम” के नारे भी लगवाए. पुलिस अपने पहले चार्जशीट में 11 लोगों को नामजद किया था और दूसरे चार्जशीट में 13 लोगों को नामजद किया था. फिर बाद में पुलिस ने यह कह कर कि तबरेज़ की मौत दिल का दौड़ा पड़ने के कारण हुई, अभियुक्तों से मुक़दमा हटा लिया था. हालाँकि बाद जब पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आयी तो पुलिस ने फिर से मुक़दमा दर्ज कर के 2 लोगों को हिरासत में लिए था.
(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)
हालाँकि लिंचिंग की घटना को अलग से सरकारी आंकड़ों में रेखांकित नहीं किया जाता है. कुछ निजी संस्थानों प्रयास किया लेकिन उन्हें बाद में बंद करना पड़ा. 2017 में इंग्लिश दैनिक पत्रिका हिंदुस्तान टाइम्स ने “हाल्ट द हेट” नाम से ऐसी घटनाओं का ब्यौरा बनाने का प्रयास किया था, लेकिन अचानक से उन्हें बंद करना पड़ा. 2018 एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी कुछ ऐसा प्रयास किया. उन्होंने 601 घटनाएँ भी रिकॉर्ड किया लेकिन उनके भारत में बैंक अकाउंट को बंद कर दिया गया. उनपर यह आरोप लगाया गया कि अस्पष्ट ढंग से विदेशों से पैसे मंगवाए थे. फिर यह ज़िम्मा इंडिया स्पेंड नामक वेबसाइट ने अपने सर लिया. उन्होंने 2012 से गाय से संबंधित हिंसा को रिकॉर्ड करने का प्रयास किया, लेकिन 2019 में उन्हें भी अचानक ही इसे बंद करना पड़ा.
गाय ले जाने से लेकर माँस ले जाने और खाने के सम्बन्ध में भी कई हत्याएँ हुई. राजस्थान के अलवर जिला के लालावंदी में 20 जुलाई 2018 को गाय तस्करी के नाम पर रक्बर खान की हत्या कर दी गयी थी. रक्बर जब अपने मित्र असलम खान के साथ पड़ोस के गाँव खानपुर से दो गायों को लेकर अपने घर जा रहे थ, विश्व हिन्दू परिषद् के सदस्यों ने उन्हें लालावंदी गाँव में घेर लिया. द वायर कि एक रिपोर्ट्स के अनुसार गजराज यादव नामक व्यक्ति ने गौ रक्षकों को इसकी जानकारी दी थी. वे पहले से वहां इंतज़ार कर रहे थे.
विश्व हिन्दू परिषद् के क्षेत्रीय नेता नवल किशोर शर्मा ने रक्बर को गायें ले जाते हुए पकड़ा और बुरी तरह से पीटा था. और वहीं उस क्षेत्र के सत्ताधारी पार्टी के विधायक ज्ञान देव आहूजा पर भी इल्जाम लगाया गया था कि उन्होंने भीड़ को उकसाने का काम किया था. बाद में ज्ञान देव आहूजा को पार्टी ने राज्य का उपाध्यक्ष बना दिया. रक्बर खान को अस्पताल ले जाने से लेकर इस मामले की एफ़आईआर दर्ज कराने तक के मामले को लेकर पुलिस को शक के घेरे में खड़ा किया जाता रहा है. बताया जाता है के पुलिस ने जख्मी पड़े रकबर को अस्पताल ले जाने की जगह गाय को गौशाला पहुँचाने को तरजीह दी थी. वहीं असलम खान, जो कि गाय ले जाते समय रक्बर के साथ मौजूद थे, उनके नाम लेने के बाद भी विश्व हिन्दू परिषद के ज़िला अध्यक्ष को एफ़आईआर में नामजद तक नहीं किया गया. जिन तीन पर पुलिस ने मुक़दमा दर्ज किया था वह भी विश्व हिन्दू परिषद के सदस्य हैं. हालाँकि, राजस्थान में नयी सरकार आने के बाद लिंचिंग की घटना कम हुई है.
इन दोनों घटनाओं के साथ-साथ अन्य घटनाओं को देखने पर यह साफ़ नहीं होता कि सोशल मीडिया की लिंचिंग में क्या भूमिका थी, यह एक गहरे शोध का विषय है. लेकिन खोडा निवासी नर सिंह मानते हैं कि लिंचिंग या इस तरह की हिंसा करने वालों की अपनी राजनीतिक मंशा छुपी होती है. मानव अधिकार कर्ता राजीव यादव भी कुछ ऐसा ही समझते हैं. वह कहते हैं कि गायों से जुडी लिंचिंग के पीछे एक ख़ास क़िस्म की राजनीति है. लिंचिंग करके लोग सोशल मीडिया पर उसकी वीडियो पोस्ट करते हैं. कोर्ट के बाहर आकर बयानबाज़ी करते हैं. कोई कार्यवाही नहीं होती. अक्सर गाय के नाम पर या धर्म को आधार पर लिंचिंग करने वाले की राजनीतिक महत्वाकांक्षाऐं होती हैं. उन्हें राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त होता है.
मजोरोटोरियन स्टेट में क्रिस्टोफ जेफ्रोलो लिखते हैं कि बहुसंख्यक समाज, अल्पसंख्यकों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए भी ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं. वह लिखते है कि अक्सर इन घटनाओं को स्वाभाविक रूप से भीड़ के द्वारा प्रतिक्रिया बताने का प्रयास करते हैं. हो सकता कुछ लोग अपने आप इस भीड़ में शामिल भी हो जाते हों. लेकिन एक खास विचारधारा है जो कि बताने का प्रयास करते हैं. लेकिन जो लोग जो भीड़ में शामिल हो कर हत्याएं करते हैं, वह किन विचारधारओं से ओत-प्रोत है यह पता कर पाना मुश्किल नहीं है. ऐसे हत्याओं के समय जैसे नारे लगाए जाते हैं वह साफ़-साफ़ इसे दर्शाता है. वह आगे बताते हैं कि महाराष्ट्र और हरयाणा में भारतीय जनता पार्टी कि सरकार के आने के बाद गाय-मांस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. लेकिन दोनों ही जगहों गौ रक्षकों को यह काम आधिकारिक रूप से दे दिया गया.
भारतीय जनता पार्टी के मंत्री जयंत सिन्हा ने अलीमुद्दीन अंसारी की लिंचिंग करने वालों का एक कार्यक्रम में फूलों की माला पहना का स्वागत किया था. अलीमुद्दीन को भी गाय के मांस ले जाने के संदेह में झारखंड के हज़ारीबाग़ जिले में पीट-पीट कर मार डाला था. हज़ारीबाग़ के फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ने 12 में से 11 अभियुक्तों को सजा सुनाई थी. लेकिन जब फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट को उच्च न्यायलय में चुनौती दी गयी तो कोर्ट ने सजा पर रोक लगा दी. 11 में 8 अभियुक्तों को उन्होंने फूल की माला पहनाई जिसके कारण काफी विवाद भी हुआ. अभियुक्तों में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के सदस्य भी शामिल हैं.
चिन्मयी अरुण अपने इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली के लेख में ब्रिजेट वेल्श के हवाले से कुछ इस तरफ इशारा करती नज़र आती हैं. वह लिखती हैं, ब्रिजेट वेल्श के अध्ययन को पढ़ने से पता चलता है कि भीड़ के द्वारा की जाने वाली हिंसा में क्षेत्रीय सरकारी मशीनरी की रज़ामंदी दिखती है. वह आगे पॉल ब्रास के हवाले लिखती हैं कि मीडिया, राजनेता और पुलिस का किसी भी धार्मिक हिंसा में अहम भूमिका होती है. पॉल ब्रास ने धार्मिक हिंसाओं के संदर्भ में भारत में लम्बा अध्ययन किया है.
चिन्मय अरुण अपनी रिपोर्ट में आगे कहती हैं कि यह स्पष्ट है कि लिंचिंग में फेक न्यूज़ की तुलना में भड़काऊ भाषण अधिक ज़िम्मेदार हैं. हिंसा के संदर्भ में समस्या की जड़ पर ध्यान देने की आवश्यकता है. राजनीतिक संरक्षण के कारण भीड़ को एक प्रकार की छूट मिलती है. पुलिस भी इनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं कर पाती है. बिना सत्ता संरक्षण के लिंचिंग जैसी घटना को अंजाम दे पाना कठिन है.
एसी हिंसक घटनाओं की प्रेरणा पूर्वाग्रह से भी आती है. इसमें एक समुदाय दूसरे समुदाय प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है.
सरकार दरअसल सभी लिंचिंग को एक जैसा दिखाने का प्रयास कर रही है. जबकि बच्चा चोरी और गाय से संबंधित लिंचिंग में सोशल मीडिया की भूमिका अलग-अलग है. सोशल के मीडिया के प्लैफॉर्म्स पर सक्रिय रूम से कंटेंट मॉडरेट करना भी इसी दिशा में एक प्रयास नज़र आता है. गाँव में रहने वाला व्यक्ति हो या मानवाधिकारकर्ता या फिर पत्रकार ऐसे निर्देशों को लिंचिंग रोकने से कहीं अधिक निजता के हनन से जोड़ कर देखते हैं.
मुंबई से इंग्लिश भाषी पत्रकार पार्थ एम्एन कहते हैं कि यह कौन तय करेगा की कौन सा सन्देश सही या और कौन फेक. किस से हिंसा हो सकती है और किससे नहीं. उन्हें लगता है कि इसका उपयोग हर राजनितिक पार्टी अपने ढंग से उपयोग करेगी. वह कहते हैं, “फेक न्यूज़ से सबसे अधिक किस राजनीतिक पार्टी को लाभ पहुँच रहा है ये सबको पता है. चीन के प्रकार से पत्रकार सहित सभी नागरिकों पर निगरानी रखने मात्र भर के लिए ऐसे बदलाव लाये जा रहे हैं.”
दरअसल,ऐसी हत्याओं के पीछे के राजनीतिक मकसद को दरकिनार कर दिया जाता है. इसका परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम, दलित और आदिवासी समाज के लोग ऐसी हिंसा के शिकार होते रहे. लेकिन धु्रवीकरण वाले राजनीतिक माहौल में इन हत्याओं के आरोपियों को सजा नहीं मिल पा रही है. जिसके कारण उनका हौसला बढ़ता चला गया.
(पांच भागों के क्रम में यह आखिरी लेख है.)